'रोम पोप का, मधेपुरा गोप का'— एक नया समीकरण बनाता या टूटता

बिहार की मधेपुरा विधानसभा और लोकसभा सीट को लेकर एक पुरानी कहावत हमेशा चर्चा में रहती है: “रोम पोप का, मधेपुरा गोप (यादव) का।” इस कहावत में गहरी राजनीति और क्षेत्रीय समीकरण छुपे होते हैं, जो हमेशा बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में चर्चा का विषय बनते हैं। यह कहावत यह दर्शाती है कि यादव समुदाय का मधेपुरा सीट पर एक मजबूत दबदबा है, विशेषकर लालू प्रसाद यादव के माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के आधार पर। हालांकि, मधेपुरा वही सीट है, जिसने एक समय में इस समीकरण को तोड़ा और एक नई परंपरा भी स्थापित की।
लालू यादव का माय समीकरण और मधेपुरा की परंपरा माय समीकरण—मुस्लिम और यादव वोटों का गठजोड़—ने बिहार की राजनीति में अहम भूमिका निभाई है, और खासकर लालू प्रसाद यादव के लिए यह एक शक्तिशाली समर्थन था। यही समीकरण उन्हें चुनावों में जीत दिलाने वाला साबित हुआ। लेकिन मधेपुरा सीट पर 1999 में जो हुआ, उसने इस समीकरण को एक मजबूत धक्का दिया। शरद यादव, जो पहले से ही बिहार की राजनीति में एक कद्दावर नेता माने जाते थे, ने लालू यादव के इस समीकरण को ध्वस्त कर दिया और उन्हें मधेपुरा सीट से हराकर धूल चटा दी। यह एक ऐतिहासिक पल था, क्योंकि यह दिखाता था कि बिहार की राजनीति में समीकरणों की महत्ता ही सब कुछ नहीं होती।
मधेपुरा की अहमियत और बदलते समीकरण अब, मधेपुरा में वही स्थिति फिर से दिखाई दे रही है। इस बार भी एक नया समीकरण बनाने की कोशिश की जा रही है। अब देखना यह होगा कि क्या पुराने समीकरणों को चुनौती देने के लिए कोई नया चेहरा उभरता है, या फिर परंपरागत समीकरणों के सहारे ही जीत हासिल की जाएगी। मधेपुरा में राजनीतिक परिस्थितियाँ हर बार एक नई दिशा में बदलती रही हैं, और इस बार भी कुछ ऐसा ही दिख सकता है।
शरद यादव का प्रभाव और यादव-मुस्लिम समीकरण 1999 में शरद यादव की जीत ने यह साबित किया था कि चुनावी समीकरण हमेशा स्थिर नहीं रहते, और हर चुनाव में राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल सकते हैं। शरद यादव ने लालू यादव के माय समीकरण को बुरी तरह से चुनौती दी, और उनके समर्थक इस बात को लेकर खुश थे कि बिहार में यादव-मुस्लिम समीकरण को तोड़ा जा सकता है। शरद यादव की यह जीत न सिर्फ मधेपुरा के लिए, बल्कि बिहार की राजनीति के लिए भी एक महत्वपूर्ण पल थी।
क्या इस बार भी कुछ वैसा होगा? अब फिर से बिहार की राजनीति में वही समीकरण बदलने की बात हो रही है। क्या इस बार भी कोई नया नेता यादव-मुस्लिम समीकरण को चुनौती देकर अपनी राह पर बढ़ेगा? या फिर वही पुराना समीकरण फिर से सत्ता की कुंजी साबित होगा? यह सवाल वर्तमान राजनीतिक माहौल में अहम बन गया है। बिहार की राजनीति में समीकरणों की सत्ता बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन समय-समय पर ऐसे नेता भी उभरते हैं जो पुराने समीकरणों को चुनौती देकर नए रास्ते खोलते हैं।

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