OPINION: नीतीश से जनता को नफरत नहीं...ऑकवर्ड मोमेंट्स के बाद भी क्यों सटी है BJP? तेजस्वी भी जानते हैं कारण
Last Updated: April 02, 2025, 08:15 IST Bihar Chunav 2025: इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू की पिछले चुनाव से भी बुरी गत होने के कयास लगाए जा रहे हैं. हालांकि चुनावी आकलन करने वाले नीतीश कुमार को लेकर मात खाते रहे हैं. उनको कमतर आंकने…और पढ़ें नीतीश कुमार की सेहत पर उठे सवाल, विपक्ष ने बताया कमजोर और बीमार हाइलाइट्स विपक्ष ने नीतीश कुमार की उम्र और सेहत पर सवाल उठाए. 2020 के चुनाव में जेडीयू की सीटें कम हुईं. नीतीश का प्रभाव अब भी बरकरार है. Bihar Chunav 2025: बिहार में बीते 20 साल से सीएम रहते आए नीतीश कुमार को बूढ़ा, बीमार और कमजोर साबित करने की होड़ लगी हुई है. विपक्ष तो उनके पीछे हाछ धोकर पड़ा हुआ है. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव और जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर लगातार कह रहे हैं कि नीतीश में बिहार संभालने की क्षमता अब नहीं बची. इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू की पिछले चुनाव से भी बुरी गत होने के कयास लगाए जा रहे हैं. हालांकि चुनावी आकलन करने वाले नीतीश कुमार को लेकर मात खाते रहे हैं. उनको कमतर आंकने की सिर्फ एक ही वजह है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जेडीयू 43 सीटें मिलने के कारण विधानसभा में तीसरे नंबर पर पहुंच गई थी. 2020 को अपवाद मान लें तो सीटों की संख्या और नतीजों में अब तक एनडीए में जेडीयू का रुतबा बड़े भाई का ही रहा है. यहां तक कि 2015 के विधानसभा चुनाव में भी आरजेडी ने उन्हें बड़ा भाई बना कर रखा था. अब जरा नीतीश कुमार की वास्तिवक स्थिति का आकलन करें.
नीतीश बनते रहे हैं भाजपा का बड़ा भाई!
यह जानने के लिए जरूरी है कि 2005 से अब तक जेडीयू और बीजेपी की लड़ी गईं सीटों की संख्या पर गौर किया जाए. लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का, नीतीश की पार्टी जेडीयू ने भाजपा के बराबर या उससे अधिक सीटों पर ही हर बार चुनाव लड़ा. अक्टूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 139 सीटों पर लड़ कर 88 सीटें जीत ली थीं, जबकि भाजपा 102 पर लड़ी और उसे 55 सीटों पर कामयाबी मिली. 2004 के लोकसभा चुनाव में भी जेडीयू 24 तो भाजपा 16 सीटों पर लड़े. जेडीयू को 6 सीट तो भाजपा को 5 सीटों पर जीत मिली. 2010 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू 141 तो भाजपा 102 सीटों पर लड़ी. जेडीयू को तब 115 सीटों पर जीत मिलीं, जबकि भजपा ने 91 सीटें जीतीं. यानी भाजपा के साथ रहते नीतीश की पार्टी बड़े भाई के रुतबे में बनी रही. परिणामों में भी जेडीयू बड़ा भाई बना रहा. नीतीश कुमार ने 2015 का विधानसभा चुनाव भाजपा से अलग हट कर लालू यादव की पार्टी आरजेडी के साथ लड़ा. दोनों दल बराबर-बराबर 101-101 सीटों पर लड़े, लेकिन आरजेडी ने नीतीश को ही सीएम फेस घोषित कर जेडीयू को बड़े भाई के रूप में मान दिया. लोकसभा चुनाव की बात करें तो 2014 में नीतीश की पार्टी अलग लड़ी. यह उसके लिए सबक था कि अकेले लड़ कर कामयाब होना आसान नहीं है. जेडीयू दो सीटों पर सिमट गई थी. नीतीश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर भाजपा से नाता जोड़ लिया. तब उनकी पार्टी जेडीयू और भाजपा बराबर-बराबर 17-17 सीटों पर लड़ी. भाजपा ने उन्हें बड़े भाई का रुतबा देते हुए 2014 में जीतीं अपनी पांच सीटें जेडीयू के लिए छोड़ दीं. जेडीयू सांसदों की संख्या भाजपा से एक कम 16 हो गई. 2020 के विधानसभा चुनाव में अगर जेडीयू की स्थिति चिराग पासवान ने नहीं बिगाड़ी होती तो नीतीश कुमार की ताकत घटने का शायद ही कोई आकलन करता. भाजपा ने भी इसे ही आधार बना कर पहली बार 2024 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू को एक सीट कम देकर छोटा भाई का एहसास कराने की कोशिश की. हालांकि सीएम पद के रुतबे से नीतीश बड़ा भाई बने रहे.
चिराग के कारण सीटें घटीं, पर ताकत नहीं
नीतीश कुमार के साथ लोजपा-आर के नेता चिराग पासवान ने धोखा नहीं किया होता तो उन्हें इतना कमजोर आंकने की कोई हिमाकत नहीं करता. जेडीयू चिराग के कारण अपनी तकरीबन तीन दर्जन सीटों का नुकसान बताती है. चिराग ने एनडीए से अलग होकर विधानसभा चुनाव में अपने 134 उम्मीदवार उतार दिए. कहते हैं कि इसमें भाजपा की भी शह थी. इस आशंका को इसलिए बल मिलता है कि चिराग ने चुन-चुन कर उन्हीं सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जहां जेडीयू चुनाव लड़ रही थी. हकीकत यह है कि नीतीश से बिहार के लोग उतने नाराज नहीं थे, जितना 2020 के विधानसभा चुनाव में असर दिखा था. इससे लोग नीतीश की कमजोरी समझने लगे. तीन साल कुछ महीने बाद ही हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में स्थिति स्पष्ट हो गई. नतीजों से साफ हो गया कि नीतीश की ताकत बुढ़ापे में भी बरकरार है. नरेंद्र मोदी के चेहरे पर भाजपा ने जितनी सीटें हासिल कीं, नीतीश कुमार के जेडीयू ने उसकी बराबरी कर ली. चुनावी आकलन करने वाले विशेषज्ञ भी मात खा गए.
उम्र व हेल्थ से आंक रहे नीतीश की ताकत
अभी लोकसभा चुनाव बीते डेढ़ साल भी पूरे नहीं हुए हैं कि विधानसभा चुनाव सामने आ गया है. डेढ़ साल में उतनी ताकत तो नहीं घटी होगी, जितनी आज आंकी जा रही है! हां, उनकी सेहत और उम्र को लेकर सवाल ज्यादा उठ रहे हैं. उम्र की बात करें तो अब वे 75 के हुए हैं. नरेंद्र मोदी भी तकरीबन उसी उम्र के हैं. ऐसे में नैतिक आधार पर पर नीतीश को अभिभावक मंडल में जाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. रही बात सेहत की तो यह बात सभी जानते हैं कि डेढ़ साल पहले वे खुद को ही खोजवाने का आदेश-निर्देश अपने अफसरों को दे रहे थे. इसका प्रसंग भी रोचक है.
क्यों है नीतीश के कमजोर पड़ने की चर्चा?
तेजस्वी यादव तो नीतीश की सेहत को लेकर उनके पीछे ही पड़ गए हैं. प्रशांत किशोर भी यही कह रहे. दोनों उनकी मानसिक स्थिति को बिहार की 13 करोड़ आबादी के लिए खतरनाक बता रहे हैं. पर, इसकी झलक तो 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले भी दिखी थी, जब नीतीश कुमार ने जनता दरबार में किसी फरियादी की शिकायत पर गृह मंत्री को बुलाने का अधिकारियों को निर्देश दिया. वे बार-बार गृह मंत्री को वहां बुलाने का आदेश दे रहे थे. वे भूल गए कि गृह मंत्रालय तो उन्हीं के पास है. उसके बाद विधानसभा में महिलाओं के बारे में उनकी टिप्पणी को लेकर भी उनकी मानसिक स्थिति पर सवाल उठाए गए. पीएम मोदी समेत कई के पैर छूने के प्रयास और अजीबोगरीब हरकतों को लेकर भी नीतीश को मानसिक तौर पर बीमार बताने की विपक्ष कोशिश करता रहा है.
टूट कर भी BJP से नहीं छूट पाती यारी
पहली बार 2013 में नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ा. नरेंद्र मोदी से तब तक नीतीश की घृणा के कई उदाहरण सामने आ चुके थे. भाजपा ने गुजरात का सीएम रहते नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया. नीतीश ने भाजपा को झटके में बाय बोल दिया. सरकार जाने की भी परवाह नहीं की. सरकार का संकट भांप कर दूसरे दलों ने सहयोग कर दिया. यहीं से नीतीश और आरजेडी की नजदीकियों का सिलसिला जनता दल के दिनों के बाद शुरू हुआ. बाद में नीतीश के जेडीयू और लालू यादव के आरजेडी ने महागठबंधन में बराबरी पर चुनाव लड़ा. नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार 2015 में बन गई. अटल बिहारी वाजपेयी में अटूट आस्था रखने वाले नीतीश कुमार कब तक उनकी ही पार्टी से अलग रहते. इसलिए 2017 में भाजपा के सहयोग से वे एनडीए सरकार में फिर सीएम बन गए. चिराग ने 2020 में लंगड़ी नहीं मारी होती तो नीतीश की यह दशा नहीं होती.
नमो से नाराजगी, पर प्रेम भी खूब है!
नरेंद्र मोदी से नीतीश की नाराजगी नई नहीं है. जब मोदी गुजरात के सीएम थे तो उनको बिहार आने से नीतीश कुमार ने ही रोक रखा था. उनके स्वागत में दिए भोज तक को ऐन मौके पर रद्द कर दिया था. बहैसियत सीएम मोदी ने जब बिहार में बाढ़ राहत के लिए मदद भेजी तो गुस्से में नीतीश ने राशि लौटा दी. इतना ही नहीं, भाजपा ने नरेंद्र मोदी को जब पीएम फेस घोषित किया तो नाराज नीतीश ने एनडीए ही छोड़ दिया. सरकार जाने की भी परवाह नहीं की. हालांकि उनकी सरकार विपक्ष की मदद से चलती रही. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी के वे अब पैर छूने का प्रयास करते हैं तो यह उनका नरेंद्र मोदी के प्रति प्रेम ही है. मोदी भी पुरानी बातें भूल कर अगर नीतिश को लाडला मुख्यमंत्री बताते हैं तो इसे परस्पर प्रेम का परिचायक ही मानना उचित होगा.
नीतीश को है अपनी औकात का अंदाजा
कोई कुछ भी कहे, पर नीतीश कुमार को अपनी ताकत का अंदाजा है. वे जानते हैं कि उनके बिना किसी की सरकार नहीं बनने वाली है. 2020 के अपने खराब दिनों में भी आरजेडी और भाजपा को बिहार में उनके बिना सरकार में शामिल होने का सुख नहीं मिला. महज 43 सीटों के सहारे ही उन्हें जनता ने मोल-भाव का मौका दे दिया था. नीतीश की कृपा से ही पहले एनडीए की सरकार बनी और बाद में 17 महीनों के लिए महागठबंधन को भी सत्ता सुख का मौका मिला. नीतीश के नाम पर जेडीयू को 15-16 प्रतिशत वोट मिलते रहे हैं. किसी की भी सरकार बनाने के लिए उनके ये वोट काफी हैं. यही वजह है कि भाजपा द्वारा सीएम बदल देने की अफवाह पर वे ध्यान नहीं देते. वे जानते हैं कि उनके बिना किसी का काम नहीं चलने वाला.
Location : Patna, Patna, Bihar First Published : April 02, 2025, 07:52 IST homebihar नीतीश से नफरत नहीं! ऑकवर्ड मोमेंट्स के बाद भी क्यों BJP साथ, RJD भी जानती कारण